राजस्थान के लोक नृत्य
राजस्थान एक भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विविधतायुक्त प्रदेश है । इसी विविधता ने इस प्रदेश के लोक नृत्यों को भी विविधता प्रदान की है और अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग नृत्य विकसित हुए । ये प्रमुख लोकनृत्य इस प्रकार हैं-
1. घूमर नृत्य -
यह पूरे राज्य में लोकप्रिय है तथा मांगलिक अवसरों व त्योहारों पर महिलाओं द्वारा किया जाता है। इसमें लहँगा पहने स्त्रियाँ गोल घेरे में लोकगीत गाती हुई नृत्य करती है । जब ये महिलाएँ विशिष्ट शैली में नाचती है तो उनके लहँगे का घेर एवं हाथों का संचालन अत्यंत आकर्षक होता है। लहंगे के घेर को कुंभ कहते है।
2. गैर नृत्य -
यह होली के दिनों में मेवाड़ एवं बाड़मेर में खेला जाता है। यह पुरुषों का नृत्य है । गोल घेरे में इसकी संरचना होने के कारण ही इसे 'गैर' कहा जाता है । इसमें पुरुषों की टोली हाथों में लंबी डंडियां ले कर ढोल व थाली-माँदल वाद्य की ताल पर वृत्ताकार घेरे में नृत्य करते हुए मंडल बनाते हैं । इस नृत्य में तेजी से पद संचालन और डंडियोँ की टकराहट से तलवारबाजी या पट्टयुद्ध का आभास होता है। मेवाड़ एवं बाड़मेर में गैर की मूल रचना समान है किंतु नृत्य की लय, ताल और मंडल में अंतर होता है।
3. अद्भुत कालबेलिया नृत्य-
"कालबेलिया" राजस्थान की एक अत्यंत प्रसिद्ध नृत्य शैली है। कालबेलिया सपेरा जाति को कहते हैं । अतः कालबेलिया सपेरा जाति का नृत्य है। इसमें गजब का लोच और गति होती है जो दर्शक को सम्मोहित कर देती है । यह नृत्य दो महिलाओं द्वारा किया जाता है। पुरुष नृत्य के दौरान बीन व ताल वाद्य बजाते हैं। इस नृत्य में कांच के टुकड़ों व जरी-गोटे से तैयार काले रंग की कुर्ती, लहंगा व चुनड़ी पहनकर सांप की तरह बल खाते हुए नृत्य की प्रस्तुति की जाती है। इस नृत्य के दौरान नृत्यांगनाओं द्वारा आंखों की पलक से अंगूठी उठाने, मुंह से पैसे उठाना, उल्टी चकरी खाना आदि कलाबाजियां दिखाई जाती है। केन्या की राजधानी नैरोबी में नवंबर, 2010 में हुई अंतरसरकारी समिति की बैठक में यूनेस्को ने कालबेलिया नृत्य को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की प्रतिनिधि सूची में भी शामिल किया है। इस नृत्य को विशेष पहचान नृत्यांगना 'गुलाबो' ने दिलाई, जिन्होंने देश में ही नहीं विदेशों में भी अपनी कलाकारी दिखाई।
गुलाबो- अजमेर जिले के कोटड़ा गांव में धनतेरस को 1971 में जन्मी 'गुलाबो' (गुलाब) अपने परिवार के साथ दस बरस की उम्र में जयपुर की सुभाष कालोनी, शास्त्री नगर में 1981 में आ बसी थी। कालबेलिया समाज के ही सोहन लाल से उसने 6.1.1986 को उसका विवाह हुआ था। मात्र 14-15 साल की उम्र में उसे भारत महोत्सव में जाने का मौका मिल गया था। गुलाब अब तक 170 से अधिक बार विदेश में अपने कार्यक्रम प्रस्तुत कर चुकी है। गुलाब के दो लड़के तीन लड़कियां हुए। वे बिग-बॉस शो में काम करने से भी सुर्खियों में रही है।
4. शेखावटी का गींदड़ नृत्य-
शेखावटी का लोकप्रिय नृत्य है । यह विशेष तौर पर होली के अवसर पर किया जाता है। चुरु, झुंझुनूं , सीकर जिलों में इस नृत्य के सामूहिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं । नगाड़ा इस नृत्य का प्रमुख वाद्य है । नर्तक नगाड़े की ताल पर हाथों में डंडे ले कर उन्हें टकराते हुए नाचते हैं । नगाडे की गति बढ़ने के साथ यह नृत्य भी गति पकड़ता है । इस नृत्य में साधु, सेठ-सेठानी, दुल्हा-दुल्हन, शिकारी आदि विभिन्न प्रकार के स्वांग भी निकाले जाते हैं ।
5. मारवाड का डांडिया नृत्य-
मारवाड के इस लोकप्रिय नृत्य में भी गैर व गींदड़ नृत्यों की तरह डंडों को आपस में टकराते हुए नर्तन होता है तथा यह भी होली के अवसर पर पुरुषों द्वारा किया जाता है किन्तु पद संचालन, ताल-लय,गीतों और वेशभूषा की दृष्टि से ये पूर्णतया भिन्न हैं। इस नृत्य के समय नगाडा और शहनाई बजाई जाती है ।
6. कामड़ जाति का विशिष्ट तेरहताली नृत्य-
यह एक ऐसा नृत्य है जो बैठ कर किया जाता है । इस अत्यंत आकर्षक नृत्य में महिलाएँ अपने हाथ, पैरों व शरीर के 13 स्थानों पर मंजीरें बाँध लेती है तथा दोनों हाथों में बँधे मंजीरों को गीत की ताल व लय के साथ तेज गति से शरीर पर बँधे अन्य मंजीरो पर प्रहार करती हुई विभिन्न भाव-भंगिमाएं प्रदर्शित करती है। इस नृत्य के समय पुरुष तंदूरे की तान पर रामदेव जी के भजन गाते हैं ।
7. उदयपुर का भवई नृत्य-
चमत्कारिकता एवं करतब के लिए प्रसिद्ध यह नृत्य उदयपुर संभाग में अधिक प्रचलित है। नाचते हुए सिर पर एक के बाद एक, सात-आठ मटके रख कर थाली के किनारों पर नाचना, गिलासों पर नृत्य करना, नाचते हुए जमीन से मुँह से रुमाल उठाना, नुकीली कीलों पर नाचना आदि करतब इसमें दिखाए जाते हैं।
8. जसनाथी संप्रदाय का अग्नि नृत्य-
यह नृत्य जसनाथी संप्रदाय के लोगों द्वारा रात्रिकाल में धधकते अंगारों पर किया जाता है। नाचते हुए नर्तक कई बार अंगारों के ऊपर से गुजर जाता है। नाचते हुए ही वह अंगारों को हाथ में उठाता है तथा मुँह में भी डाल लेता है। यह नृत्य पुरुषों द्वारा ही किया जाता है।
9. जालोर का ढोल नृत्य-
जालोर के इस प्रसिद्ध नृत्य में 4 या 5 ढोल एक साथ बजाए जाते हैं । सबसे पहले समूह का मुखिया ढोल बजाता है। तब अलग अलग नर्तकों में से कोई हाथ में डंडे ले कर, कोई मुँह में तलवार ले कर तो कोई रूमाल लटका कर नृत्य करता है । यह नृत्य अक्सर विवाह के अवसर पर किया जाता है ।
10. चरी नृत्य-
राजस्थान के गाँवों में पानी की कमी होने के कारण महिलाओं को कई किलोमीटर तक सिर पर घड़ा (चरी) उठाए पानी भरने जाना पड़ता है । इस नृत्य में पानी भरने जाते समय के आल्हाद और घड़ोँ के सिर पर संतुलन बनाने की अभिव्यक्ति है। इस नृत्य में महिलाएँ सिर पर पीतल की चरी रख कर संतुलन बनाते हुए पैरों से थिरकते हुए हाथों से विभिन्न नृत्य मुद्राओं को प्रदर्शित करती है। नृत्य को अधिक आकर्षक बनाने के लिए घडे के ऊपर कपास से ज्वाला भी प्रदर्शित की जाती है ।
11. कठपुतली नृत्य-
इसमें विभिन्न महान लोक नायकों यथा महाराणा प्रताप, रामदेवजी, गोगाजी आदि की कथा अथवा अन्य विषय वस्तु को कठपुतलियों के माध्यम से प्रदर्शित किया जाता है। यह राजस्थान की अत्यंत लोकप्रिय लोककला है। यह उदयपुर में अधिक प्रचलित है।
12. गरासिया जनजाति का वालर नृत्य-
वालर गरासिया जनजाति का एक महत्वपूर्ण नृत्य है । यह घूमर नृत्य का एक प्रतिरूप है । इसमें माँदल, चंग व अन्य वाद्य यंत्रों की थाप पर नर्तक अपने कौशल का प्रदर्शन करते हुए थिरकते हैं।
13. चंग नृत्य -
पुरुषों के इस नृत्य में प्रत्येक पुरुष के हाथ में एक चंग होता है और वह चंग बजाता हुआ वृत्ताकार घेरे में नृत्य करता है। इस दौरान एक वादक बाँसुरी भी बजाता रहता और सभी होली के गीत व धमाल गाते हैं।
14. कच्छी घोड़ी नृत्य-
कच्छी घोड़ी नृत्य में ढाल और लम्बी तलवारों से लैस नर्तकों का ऊपरी भाग दूल्हे की पारम्परिक वेशभूषा में रहता है और निचले भाग में बाँस के ढाँचे पर कागज़ की लुगदी से बने घोड़े का ढाँचा होता है। यह ऐसा आभास देता है जैसे नर्तक घोड़े पर बैठा है। नर्तक, शादियों और उत्सवों पर नाचता है। इस नृत्य में एक या दो महिलाएँ भी इस घुड़सवार के साथ नृत्य करती है। कभी कभी दो नर्तक बर्छेबाज़ी के मुक़ाबले का प्रदर्शन भी करते हैं।
15. पनिहारी नृत्य-
पनिहारी का अर्थ होता है पानी भरने जाने वाली। पनिहारी नृत्य घूमर नृत्य के सदृश्य होता है। इसमें महिलाएँ सिर पर मिट्टी के घड़े रखकर हाथों एवं पैरों के संचालन के साथ नृत्य करती है। यह एक समूह नृत्य है और अक्सर उत्सव या त्योहार पर किया जाता है।
16. बमरसिया या बम नृत्य-
यह अलवर और भरतपुर क्षेत्र का नृत्य है और होली का नृत्य है। इसमें दो व्यक्ति एक नगाड़े को डंडों से बजाते हैं तथा अन्य वादक थाली, चिमटा, मंजीरा,ढोलक व खड़ताल आदि बजाते हैं और नर्तक रंग बिरंगे फूंदों एवं पंखों से बंधी लकड़ी को हाथों में लेकर उसे हवा में उछालते हैं। इस नृत्य के साथ होली के गीत और रसिया गाए जाते हैं । बम या नगाड़े के साथ रसिया गाने से ही इसे बमरसिया कहते हैं।
17. हाड़ौती का चकरी नृत्य-
यह नृत्य हाड़ौती अंचल (कोटा,बारां और बूंदी) की कंजर जाति की बालाओं द्वारा विभिन्न अवसरों विशेषकर विवाह के आयोजन पर किया जाता है। इसमें नर्तकी चक्कर पर चक्कर घूमती हुई नाचती है तो उसके घाघरे का लहराव देखते लायक होता है। लगभग पूरे नृत्य में कंजर बालाएं लट्टू की तरह घूर्णन करती है। इसी कारण इस नृत्य को चकरी नृत्य कहा जाता है। इस नृत्य में ढफ, मंजीरा तथा नगाड़े वाद्य का प्रयोग होता है।
18. लूर नृत्य-
मारवाड का यह नृत्य फाल्गुन माह में प्रारंभ हो कर होली दहन तक चलता है। यह महिलाओं का नृत्य है। महिलाएँ घर के कार्य से निवृत हो कर गाँव में नृत्य स्थल पर इकट्ठा होती है एवं उल्लास के साथ एक बड़े घेरे में नाचती हैं।
19. घुड़ला नृत्य-
यह मारवाड का नृत्य है जिसमें छेद वाले मटकी में दीपक रख कर स्त्रियाँ टोली बना कर पनिहारी या घूमर की तरह गोल घेरे में गीत गाती हुई नाचती है। इसमें धीमी चाल रखते हुए घुड़ले को नजाकत के साथ संभाला जाता है। इस नृत्य में ढोल, थाली, बाँसुरी, चंग, ढोलक, नौबत आदि मुख्य हैं। यह नृत्य मुख्यतः होली पर किया जाता है जिसमें चंग प्रमुख वाद्य होता है। इस समय गाया जाने वाला गीत है - "घुड़लो घूमै छः जी घूमै छः , घी घाल म्हारौ घुड़लो ॥"
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